Description
सामाजिक विडंबनाएं
( लेखक के कलम से )
यह कोई न्यूज़ हैडलाइन नहीं है और ना ही किसी शेर का मुखड़ा बल्कि यह तो हमारी सामाजिक दिनचर्या में होने वाली उन घटनाओं का अवलोकन है जिसे मैंने महसूस किया और इस पर मंथन करने के बाद जो मेरे मन ने कहा उसे कलमबद्ध किया हूं। जब इंसान इंसानियत से हटकर या पाखंडवाद का शिकार होकर मानवता की सेवा को भूलकर सिर्फ पत्थरों में भगवान ढूंढने की कोशिश करता है और इंसान जरूरतों को नजरअंदाज करता है तो वहीं से जन्म होता है सामाजिक विडंबना का। मैं इन समस्त कविताओं को इसलिए नहीं लिखा कि किसी के दिल को ठेस पहुंचे बल्कि इसलिए लिखा कि हमारे समाज में जो धर्म के नाम पर पाखंड करते हैं अपने आप को इंसान कहते हैं, अपने आपको समाज सेवक कहते हैं उन्हें एक बार अपने मन की आंखें खोलने की जरूरत है और मन की आंखों से देखने की जरूरत है तब जाकर दूर होंगे हमारे समाज की भ्रांतियां और समाजिक विडंबनाएं।
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